गरीबी का मजाक है, यह
आजकल एक डालर से डेढ़ डालर को गरीबी का आंकड़ा माना जाता है। मैं पूछता हूं कि आज भारत के किस शहर में कौन आदमी 100 रु. रोज में भी गुजारा कर सकता है? पति-पत्नी और दो बच्चे 200 रु. रोज में क्या रोटी, कपड़ा, मकान, इलाज, शिक्षा और मनोरंजन की न्यूनतम सुविधा पा सकते हैं ? क्या वे एक इंसान की जिंदगी जी सकते हैं?
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक ताजा रपट के मुताबिक दुनिया में गरीबी को सबसे ज्यादा खत्म करने वाला कोई देश है तो भारत ही है। भारत में सन 2006 से 2016 तक याने 10 साल में 27 करोड़ 10 लाख लोग गरीबी रेखा से ऊपर उठ गए। कांग्रेस सरकार की इससे ज्यादा तारीफ क्या हो सकती है? डॉ मनमोहन सिंह की सरकार को सफलता का यह सबसे सुंदर प्रमाण-पत्र दिया जा सकता है। यह रपट 103 देशों के सवा अरब लोगों का अध्ययन करके बनाई गई है। इस रपट के मुताबिक दक्षिण एशिया के देशों की हालत में सबसे ज्यादा सुधार हुआ है। इस अध्ययन में सिर्फ यही नहीं देखा गया है कि किसी गरीब या उसके परिवार की दैनिक आय कितनी है बल्कि यह भी जानने की कोशिश की गई है कि उसके खान-पान, आवास, बच्चों की शिक्षा, स्वच्छता, स्कूलों में उपस्थिति, स्वच्छता, खाना पकाने के लिए ईधन की उपलब्धि, हिंसा के खतरों से निपटना, संपत्ति आदि का भी इंतजाम यथोचित है या नहीं?
इन सब मुद्दों पर जांच कर संयुक्त राष्ट्र संघ की यह कमेटी इस नतीजे पर पहुंची है कि भारत ने कमाल कर दिया है। भारत ने कमाल किया या नहीं, इस कमेटी ने जरुर कमाल कर दिया है। इस कमेटी को सबसे पहले यह समझ होनी चाहिए कि गरीबी का अर्थ क्या है ? कौन है, जिसे हम गरीब मानें? भारत में अब से 10-15 साल पहले तक उसे गरीब कहा जाता था, जो गांव में 28 रु. और शहर में 32 रुपए रोज कमाए। उन्हीं दिनों कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसे 40 रु. और 42 रु. रोज कर दिया। आजकल एक डालर से डेढ़ डालर को गरीबी का आंकड़ा माना जाता है। मैं पूछता हूं कि आज भारत के किस शहर में कौन आदमी 100 रु. रोज में भी गुजारा कर सकता है? पति-पत्नी और दो बच्चे 200 रु. रोज में क्या रोटी, कपड़ा, मकान, इलाज, शिक्षा और मनोरंजन की न्यूनतम सुविधा पा सकते हैं ? क्या वे एक इंसान की जिंदगी जी सकते हैं?
भारत के लाखों गरीब इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं। करोड़ों बच्चे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ भागते हैं। देश के करोड़ों लोग आज भी ऐसे झोंपड़ों में दिन काटते हैं, जिनकी छत टपकती रहती है, फर्श कीचड़ में सना रहता है, दीवारों पर सांप-बिच्छू घूमते हैं और उनके संडास सड़ांध के फव्वारे बने रहते हैं। ठंड और गर्मी की मार झेलने के लिए भी करोड़ों ग्रामीण, आदिवासी, किसान और मजदूर आज भी मजबूर हैं। गांवों के घर-घर में बिजली और शौचालय सिर्फ कागज पर आंकड़ों का खेल है। इसी खेल में उलझकर संयुक्त राष्ट्र की यह रपट भी बह गई है। हम इस रपट पर फूलकर कुप्पा हो सकते हैं लेकिन यह हमारी गरीबी का मज़ाक नहीं तो क्या है ?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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