बिरहा सम्राट पद्मश्री हीरालाल यादव का निधन
इसी साल गणतंत्र दिवस के अवसर पर हीरालाल यादव को पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया था। उनकी मृत्यु की खबर सुनकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्वीट कर श्रद्धांजलि दी है। उन्होंने लिखा है- ‘‘पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित वाराणसी के बिरहा गायक श्री हीरालाल यादव जी के निधन की खबर से अत्यंत दुख हुआ।
अपनी लोकगायकी ‘बिरहा’ के माध्यम से करोड़ों लोगों के दिल में बसने वाले हीरालाल यादव का 11 मई 2019 को बनारस के एक अस्पताल में निधन हो गया। उनके निधन की खबर सुनकर पूर्वांचल के क्षेत्रों में शोक की लहर दौड़ गई।
वे 83 वर्ष के थे और पिछले कई दिनों से गंभीर रूप से बीमार थे। शनिवार देर रात उनके पार्थिव शरीर को चैका घाट स्थित उनके आवास पर लाया गया। स्व. हीरालाल यादव के पुत्र सत्यनारायण यादव ने बताया कि दो दिन पहले ही प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने फोन कर स्वास्थ्य की जानकारी ली थी। इसी साल गणतंत्र दिवस के अवसर पर हीरालाल यादव को पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया था। उनकी मृत्यु की खबर सुनकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्वीट कर श्रद्धांजलि दी है। उन्होंने लिखा है- ‘‘पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित वाराणसी के बिरहा गायक श्री हीरालाल यादव जी के निधन की खबर से अत्यंत दुख हुआ। दो दिन पहले ही बातचीत कर उनका हालचाल जाना था। उनका निधन लोकगायकी के क्षेत्र के लिए अपूरणीय क्षति है। शोक की इस घड़ी में मेरी संवेदनाएं उनके प्रशंसकों और परिवार के साथ है।’’ उनके हजारों प्रशंसक अंतिम दर्शन को उनके आवास पहुंचे।
बिरहा लोकगायन की एक विधा है जो पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में विशेष रूप से प्रचलित है। बिरहा प्रायः अहीर (यादव) लोग गाते हैं। यह विधा भारत के बाहर मारीशस, मेडागास्कर आदि देशों जहां भोजपुरी भाषी लोग निवास करते हैं विशेष रूप से प्रचलित है।
बिरहा की उत्पत्ति के सूत्र हमें ब्रिटिश शासन के अधीन भारत में मिलते हैं। इस समय रोजगार की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन बढ़ा। रोजगार की तलाश में पुरुष अपनी पत्नी को छोड़कर लंबे समय तक प्रवास में रहते थे। दिन भर के कठोर श्रम के बाद रात में जब ये मजदूर एक जगह बैठते तो अपनी विरह वेदना को गीतों के माध्यम से व्यक्त करते थे। इसी कारण लोकगीत की इस शैली का नाम बिरहा पड़ा। बिरहा छोटे-छोटे समूहों में विभक्त होकर ऊंचे स्वर में गाया जाता है। कालांतर में लोक रंजन गीत के रूप में बिरहा का विकास हुआ और धीरे-धीरे पर्व-त्योहारों और मांगलिक अवसरों पर भी ‘बिरहा गायन’ की परंपरा शुरू हो गई। किसी विशेष धार्मिक अवसर पर मंदिरों में बिरहा दंगल नामक प्रतियोगिता का भी आयोजन होता है।बिरहा गायन के आज दो प्रकार सुनने को मिलते हैं। पहले प्रकार को ‘खड़ी बिरहा’ कहा जाता है और दूसरा प्रकार है ‘मंचीय बिरहा’। खड़ी बिरहा में वाद्य यंत्रों की संगति नहीं होती, परन्तु गायक की लय एकदम पक्की होती है। पहले मुख्य गायक तार सप्तक के स्वरों में गीत का मुखड़ा आरम्भ करता है फिर सहयोगी गायक दल उसमें शामिल हो जाता है। बिरहा के दंगल स्वरूप में गायकों की दो टोलियां होती हैं जो बारी बारी से बिरहा गीतों का गायन करते हैं। ऐसी प्रस्तुतियों में गायक दल परस्पर सवाल-जवाब और एक दूसरे पर कटाक्ष भी करते हैं।
बिरहा प्रायः अहीर (यादव) लोग गाते हैं। लेकिन यह अहीरों के अलावा जाटों, गूजरों, खेतिहर मजदूरों, शहर में दूध बेचने वाले दूधियों, लकड़हारों, चरवाहों आदि का एक तरह से हृदय गीत है। भोजपुरी भाषी क्षेत्र की यह लोकगायकी मनोरंजन के अलावा थकान मिटाने का महत्वपूर्ण साधन है। इसका अन्तिम शब्द प्रायः बहुत खींचकर गाया जाता है। आजकल पारंपरिक गीतों के तर्ज और धुनों को आधार बनाकर बिरहा गीत तैयार किए जाते हैं। ‘पूर्वी’, ‘कहरवा’, ‘खेमटा’, ‘सोहर’, ‘पचरा’, ‘जटावर’, ‘जँतसार’, ‘विदाई गीत’, ‘निर्गुण’, ‘छपरहिया’, ‘टेरी’, ‘उठान’, ‘टेक’, ‘गजल’, ‘विदेशिया’, खड़ी बोली और हिन्दी फिल्मी गीतों की धुनों पर भी बिरहा गीत रचे जा रहे हैं। बिरहा के शुरुआती दौर के गायक बिहारी यादव, पत्तू यादव, छेदी पंचम, करिया, गोगा, मौलवी, मुंशी, मिठाई, खटाई, खरपत्तू, लालमन, मेवा सोनकर, सहदेव, जयमंगल, महावीर, मुन्नी लाल पलकधारी, बेचन सोनकर, अक्षयवर, पतिराम, रामलोचन, बरसाती, रामाधार, पतिराम, बालेश्वर यादव, हैदर अली, कारावास, एवं हीरालाल यादव का नाम विशेष आदर के साथ लिया जाता है। हीरालाल यादव के निधन से बिरहा लोकगायकी को अपूरणीय क्षति हुई है। उनका बचपन गरीबी में बीता था। शौकिया तौर पर गाते-गाते उन्होंने बिरहा को राष्ट्रीय फलक पर पहचान दिलाई थी और बिरहा सम्राट के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने वर्ष 1962 से आकाशवाणी और दूरदर्शन पर बिरहा गाकर लाखों लोगों के हृदय में बिरहा के प्रति प्रेम जगाया था। हीरालाल यादव ने भक्ति रस में पगे लोकगीत और कजरी गाकर भी लोगों को खूब झुमाया। उन्होंने गायकी में शास्त्रीय पुट का समावेश कर बिरहा गायन को विशेष विधा के रूप में पहचान दिलाई थी। पूरा भोजपुरी समाज उनका सदैव ऋणी रहेगा।
(लेखक व पूर्व पत्रकार डाॅ. अरुण कुमार भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली में सीनियर फेलो रहे हैं। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)
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