जानिए महात्मा जोतीराव फुले और उस्मान शेख की ऐसी दोस्ती के बारे में जिसकी वजह से ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व को भी जबरदस्त चुनौती मिली।
महात्मा फुले भारत में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सबकी शिक्षा की मांग की,उन्होंने इसके लिये हंटर कमीशन को 1882 में पत्र लिखकर अपनी राय भेजी। प्रोफेसर गेल ओमवेल्ट औपनिवेशिक आधुनिकता को 19वीं शताब्दी के मध्य में दो मुख्य धाराओं के लिये जिम्मेदार मानती हैं,पहली राष्ट्रीय आंदोलन के लिए और दूसरा सामाजिक आंदोलनों के लिये। महात्मा फुले ने समाज सुधार के अनेकों काम किए जिसमें महिलाओं को शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, महिलाओं को तलाक के अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष,बाल विवाह व बहुविवाह जैसी कुरीतियां शामिल हैं। महात्मा फुले ने ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व को भी जबरदस्त चुनौती दी उन्होंने सत्यशोधक विवाह शुरू किया जिसमें कोई ब्राह्मण पुजारी नहीं होता था,उसमें किसी भी तरह के ब्राह्मण संस्कार नहीं माने जाते थे । प्रो. संदीप यादव की खास रिपोर्ट :-
महात्मा जोतीराव का नाम जोतीराव फुले था,न कि ज्योति राव फुले। जोती शब्द जोत से बना है जो खेती के खेत जोतने से जुड़ा हुआ है। ज्यादातर जो इंटरनेट पर महात्मा फुले पर लिखे लेख उपलब्ध है उसमें 'ज्योति' लिखा हुआ है न कि 'जोती'। महात्मा जोतीराव फुले 11 अप्रैल 1827 को पुणे में जन्मे थे, महात्मा फुले को भारतीय सामाजिक क्रांति का जनक कहा जाता है वह एक श्रमशील किसान जाति में जन्मे थे। जोतीराव के स्कूल के क्लर्क द्वारा यह शिकायत कर दिये जाने से कि एक शूद्र छात्र स्कूल में पढ़ रहा है,स्कूल प्रशासन द्वारा महात्मा फुले को स्कूल से निकाल दिया गया, स्कूल से निकाल दिए जाने के बाद उन्होंने स्कॉटिश मिशनरी स्कूल से अंग्रेजी माध्यम में अपनी शिक्षा कक्षा सातवीं तक पूरी की।
अपना स्कूल 1847 में पूरा करने के बाद उन्होंने शूद्र व अतिशूद्र लड़कियों के लिए पुणे में 1848 में एक स्कूल शुरू किया। स्कूल महात्मा जोतीराव फुले उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले, यूरोपियन मिशनरीज व उनके मित्र उस्मान शेख और उनकी पत्नी फातिमा शेख की मदद से चलाया जाता था। जब महात्मा फुले यह स्कूल चला रहे थे तब एक बहुत बड़ा ब्राह्मणवादी हिंदू समाज का हिस्सा उनका दुर्भावना के साथ सामाजिक विरोध कर रहा था। 24 सितंबर 1873 को उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना विश्व बंधुत्व की भावना के साथ की।
महात्मा फुले भारत में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सबकी शिक्षा की मांग की,उन्होंने इसके लिये हंटर कमीशन को 1882 में पत्र लिखकर अपनी राय भेजी। प्रोफेसर गेल ओमवेल्ट औपनिवेशिक आधुनिकता को 19वीं शताब्दी के मध्य में दो मुख्य धाराओं के लिये जिम्मेदार मानती हैं,पहली राष्ट्रीय आंदोलन के लिए और दूसरा सामाजिक आंदोलनों के लिये। संयोगवश उस समय सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा फुले कर रहे थे। भारतीय पुनर्जागरण ने बिना किसी व्यापक विवेचना के यूरोपियन ओरिएंटल ऐतिहासिक स्वरूप को स्वीकार कर लिया लेकिन महात्मा फुले एक मात्र अपवाद थे जिन्होंने विवादास्पद ओरिएंटल ऐतिहासिक स्वरूप को तर्क व आलोचना की कसौटी पर कसा और अपनी आलोचना के साथ उसको जनता के सामने रखा,उसके बाद उसमें से जो बातें मानव हित में थीं,उनको लिया।
समाज की मुख्यधारा जो ब्राह्मण वर्चस्व के कब्जे में थी उसने इतिहास के ओरिएंटल स्स्वरूप को स्वीकार कर लिया और उसी आधार पर अपने इतिहास का मूल्यांकन किया। महात्मा फुले टॉमस पेन के विचारों से बहुत प्रभावित थे, उन्होंने पाश्चात्य जगत व दर्शन की ढेर सारी किताबों का अध्ययन किया था। महात्मा फुले एक सफल व्यवसायी व कुशल किसान के साथ साथ एक प्रगतिशील समाज सुधारक भी थे।1877 में दक्षिण के प्रांतों में जबरदस्त सूखा पड़ा उस समय ज्योतिराव फुले ने धनक वाड़ी में गरीबों के लिए अनाज वितरण का एक शिविर लगाया जहां बच्चों,जरूरतमंदों और अपंगों को मुफ्त में भोजन दिया जाता था। करीब दो हजार भाकरी वहां पर प्रतिदिन जरूरतमंदों में बांटी जाती थी। उन्होंने इस बात का भी ध्यान दिया कि बच्चों को नियमित रूप से पोषण युक्त भोजन मिलता रहे, जिससे बच्चों के जीवन को क्षति न हो।
महात्मा फुले ने समाज सुधार के अनेकों काम किए जिसमें महिलाओं को शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, महिलाओं को तलाक के अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष,बाल विवाह व बहुविवाह जैसी कुरीतियां शामिल हैं। महात्मा फुले ने अपने विद्यालय में आधुनिक शिक्षा पर जोर दिया जैसे भाषा, व्याकरण,गणित, विज्ञान, इतिहास,कृषि विज्ञान व भूगोल इत्यादि। जबकि उस समय ब्राम्हण अध्यापक संस्कृत भाषा और पारंपरिक वैदिक शिक्षा पर जोर देते थे। महात्मा फुले द्वारा चलाए जाने वाले स्कूल की ज्ञान की गुणवत्ता उनकी एक महिला विद्यार्थी द्वारा लिखे गए एक निबंध से स्पष्ट होती है। उनकी 14 साल की विद्यार्थी मुक्ता साल्वे ने एक निबंध लिखा,उस निबंध में मुक्ता तर्क करती हैं और कहती हैं कि अगर वेद को हम शूद्रों को पढ़ने की मनाही है, इसका मतलब है कि वेद हमारे नहीं है और अगर वेद हमारे नहीं हैं तो इससे स्पष्ट होता है कि धर्म भी हमारा नहीं है। हमको ऐसे ब्राह्मणवादी धर्म के चंगुल से मुक्त होना चाहिए, इसी में हमारा भला है।
1863 में एक दुखद घटना घटी, काशीबाई नाम की एक ब्राह्मण विधवा महिला जो विधवा होंने के बाद गर्भवती थी उसने अपने गर्भपात कराने के तमाम उपाय किए फिर भी वह गर्भपात में असफल रही। काशीबाई ने बच्चे को जन्म देने के बाद लोक लाज के डर से व कुंठा में उस बच्चे को मार दिया, इस घटना से दुखी होकर महात्मा फूले ने नवजात बच्चों का एक उपचार गृह शुरू किया, जिसमें ऐसे बच्चों की देखभाल होती थी।
महात्मा फुले ने ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व को भी जबरदस्त चुनौती दी उन्होंने सत्यशोधक विवाह शुरू किया जिसमें कोई ब्राह्मण पुजारी नहीं होता था,उसमें किसी भी तरह के ब्राह्मण संस्कार नहीं माने जाते थे, किसी भी तरह का कोई शोषण नहीं होता था। विवाह में शामिल होने वाले लोग वर-वधू पर चावल और अनाज के दाने फेंक कर उनको आशीर्वाद देते थे। महात्मा फुले का सत्यशोधक विवाह बाद में ई वी रामास्वामी पेरियार के सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट का आधार भी बना। महात्मा ज्योतिबा फुले एक युग निर्माता थे, महात्मा फुले ने अपनी मानवीय दृष्टि से भारतीय समाज को एक दृष्टि दी।
( लेखक प्रो. संदीप यादव एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय रहते हैं। जीविका के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन करते हैं।)
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