यूरोपीय संघ का लड़खड़ाना
यूरोपीय संघ और ग्रेट ब्रिटेन का 31 जनवरी को औपचारिक संबंध-विच्छेद हो गया है। इस संबंध-विच्छेद की प्रक्रिया में दो ब्रिटिश प्रधानमंत्रियों-डेविड केमरन और थेरेसा मे को इस्तीफा भी देना पड़ा है
यूरोपीय संघ और ग्रेट ब्रिटेन का 31 जनवरी को औपचारिक संबंध-विच्छेद हो गया है। इस संबंध-विच्छेद की प्रक्रिया में दो ब्रिटिश प्रधानमंत्रियों-डेविड केमरन और थेरेसा मे को इस्तीफा भी देना पड़ा है लेकिन प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन को इस एतिहासिक कदम का श्रेय मिलेगा कि उन्होंने ब्रिटेन को यूरोप की गुलामी से ‘आजाद’ करवा दिया। इसे लाखों अंग्रेजों ने कल लंदन में प्रदर्शन करके ‘आजादी’ क्यों कहा ? क्योंकि वे मानने लगे थे कि ब्रिटेन पिछले 47 साल से यूरोप का आनाथालय बनता जा रहा था। यूरोपीय संघ के 28 देशों में से किसी भी देश के नागरिक ब्रिटेन में बे-रोक टोक आ जा सकते थे, वहां रह सकते थे, नौकरी और व्यापार कर सकते थे। उन देशों और ब्रिटेन के बीच बिना किसी तटकर के खुला व्यापार हो सकता था। ब्रिटेन क्योंकि यूरोप के सभी देशों में सबसे मालदार और ताकतवर देश है, इसलिए उसकी नौकरियों पर अन्य यूरोपीय संघ के लोग आकर कब्जा करने लगे थे। सस्ते वेतन पर काम करनेवाले ये लोग अंग्रेजों को अपदस्थ करते जा रहे थे। इसी तरह अन्य देशों के सस्ती मजदूरी पर बनी वस्तुएं ब्रिटिश बाजारों को पाटती चली जा रही थीं। इसीलिए ‘ब्रेक्जिट’ को आज ब्रिटेन की जनता उत्सव की तरह मना रही है। लेकिन ‘ब्रेक्जिट’ को लेकर जो जनमत-संग्रह हुआ था, उसमें यदि 52 प्रतिशत वोटरों ने यूरोपीय संघ छोड़ने के पक्ष में वोट दिया था तो 48 प्रतिशत ने उसमें जमे रहने पर सहमति दी थी, क्योंकि हजारों ब्रिटिश नागरिक इन यूरोपीय देशों में बिना पासपोर्ट-वीजा आते-जाते रहते थे, नौकरियां और व्यापार करते थे। इसके अलावा नार्दर्न आयरलैंड के लोग ‘ब्रेक्जिट’ के विरुद्ध वोट देते रहे हैं। लेकिन अब जबकि ब्रेक्जिट लागू हो गया है तो भी अगले 11 माह तक यूरोपीय संघ और ब्रिटेन का संबंध पूर्ववत रहेगा। इस बीच दोनों यह तय करेंगे कि ब्रिटेन और शेष 27 यूरोपीय देश के बीच द्विपक्षीय आपसी संबंध कैसे रहेंगे, कैसे उन्हें चलाया जाएगा। वास्तव में यह यूरोपीय संघ के क्षीण या विसर्जित होने की शुरुआत है। हमारे लिए यह चिंता का विषय है, क्योंकि हम तो सारे दक्षिण एशिया के देशों का यूरोपीय संघ से भी बेहतर संगठन बनाना चाहते हैं। इस घटना से भारत को गंभीर सबक लेना चाहिए। भारत के पड़ौसी देशों की हालत यूरोपीय देशों के मुकाबले काफी शोचनीय है। यदि दक्षेस (सार्क) को भी कभी इसी तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है, हालांकि दक्षेस ने 35 साल के हो जाने के बावजूद अभी तक घुटनों के बल चलना भी नहीं सीखा है।
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