क्या कोई मॉब लिंचिंग के खिलाफ आवाज उठाए तो वो है मोदी विरोधी ?
भारत में मॉब लिंचिंग हमेशा से होता रहा है। लेकिन, कैसे? आप हाईवे पर जा रहे हैं। आपकी कार से किसी की बकरी-मुर्गी टकरा कर मर गई। कोई व्यक्ति दुर्घटनाग्रस्त हो गया, अचानक स्थानीय लोग आपको घेर लेंगे। लेकिन, किसी विचार से असहमत लोगों के साथ हिंसा करने को भी अगर आप मॉब लिंचिंग मानते हैं, तो आप दरअसल ऐसे लोगों के दुस्साहस को और अधिक बढा ही रहे हैं। आप सीधे-सीधे ऐसे लोगों को संगठित आपराधिक गिरोह का सदस्य बोलना शुरू कीजिए।
शशि शेखर
मनुष्य मूलत: हिंसक होता है। यह समाज-काल-स्थिति-आत्मशक्ति ही है कि हिंसक व्यवहार छुपी अवस्था में होती है। लेकिन, अब हमारा हिंसक व्यवहार मुखर हुआ है। पिछले 4 साल नहीं, पिछले 25 सालों में इसका प्रगटीकरण अधिक हुआ है उदारवादी व्यवस्था के बाद से। जब से संपन्नता बढी और असमानता भी। ये हिंसक व्यवहार समाज और वर्ग निरपेक्ष दिख रहा है।
पढा-लिखा इंसान दिल्ली की सड़क पर कार में स्क्रैच आने पर गोली मार रहा है। तो किसी दूरदराज के शहर-कस्बा में युवा इस ताक में है कि कोई गाय ले जाता मिले, ताकि अन्दर का गुब्बार बाहर निकल सके। जिसे हम मॉब लिंचिंग समझ रहे है, वो असल में निराशा का सामूहिक हिंसक प्रगटीकरण ही है। ऊर्जा का नकारात्मक रूपांतरण है। जो तय है, क्योंकि ऊर्जा का क्षय नहीं होता।
सत्य-अहिंसा के हथियार से जिस देश ने अंग्रेजों को हरा दिया, वहां अपने ही खिलाफ लोग लड़ रहे हैं। तो फिर से सिर्फ राजनीतिक समर्थन या विरोध के नजरिए से मत देखिए। मॉब लिंचिंग हो या रोड रेज की घटनाएं। किसी आईटी प्रोफेशन द्वारा अपने बीबी की गला रेत कर हत्या करने की घटना हो या ट्रेन में सहयात्री को जान से मार देना। ऐसी सारी घटनाओं का सामाजिक-मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने की जरूरत है। हम मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार बनते समाज की ओर अग्रसर हैं। इसका भाजपा-कांग्रेस-कम्युनिस्ट से कोई लेनादेना नहीं है।
खतरनाक यह कि, ऐसी घटनाएं और बढेंगी। क्योंकि इसे रोकने का कोई प्रयास होता नहीं दिख रहा है। रोकने का क्या, इसे मनोवैज्ञानिक समस्या समझने के लिए हम तैयार नहीं हैं। बस, सत्ता और विरोधी दल के खांचे में इसे बांट देते है, बिना ये सोचे कि जनता ही पक्ष है, जनता ही विपक्ष है। फिर भी, जनता ही जनता के खिलाफ क्यों है...?
भारत में मॉब लिंचिंग हमेशा से होता रहा है। लेकिन, कैसे? आप हाईवे पर जा रहे हैं। आपकी कार से किसी की बकरी-मुर्गी टकरा कर मर गई। कोई व्यक्ति दुर्घटनाग्रस्त हो गया, अचानक स्थानीय लोग आपको घेर लेंगे। लेकिन, किसी विचार से असहमत लोगों के साथ हिंसा करने को भी अगर आप मॉब लिंचिंग मानते हैं, तो आप दरअसल ऐसे लोगों के दुस्साहस को और अधिक बढा ही रहे हैं। आप सीधे-सीधे ऐसे लोगों को संगठित आपराधिक गिरोह का सदस्य बोलना शुरू कीजिए।
और कहां से आप बेतुका तर्क लाते हैं कि मॉब लिंचिंग तो कांग्रेस के समय भी होता रहा है और उससे भी पहले से होता आया है। तो क्या ऐसी आधार पर इसे जारी रखे जाने की छूट मिल जानी चाहिए।
लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है....पहलू खान या तबरेज अगर भीड के हत्थे चढा तो यूपी का हिन्दू पुलिस इंस्पेक्टर भी भीड़ के हाथों मारा गया...आज ये भीड़ तंत्र बन गया है...भस्मासुर बन गया है। और जब कोई इस पर बात करें, प्रधानमंत्री को चिठ्ठी लिखे तो आपको इसमें मोदी विरोध दिखता है। और अगर मोदी विरोध है ही तो लोकतंत्र में सत्ता का विरोध कौन सा गुनाह-ए-अजीम हो गया?
नीतीश कुमार जब शराब बेचने के जुर्म में पूरे गांव पर जुर्माना लगा सकते है तो किसी इंसान की हत्या करने, कानून अपने हाथ में लेने, भारत की पुलिस/संविधान/अदालत को धत्ता बताने के जुर्म में भीड़ को सजा क्यों नहीं दी जा सकती है? इसके लिए कानून क्यों नहीं बनाया जा सकता है? इसके लिए जनता अपने नेता से पत्र लिख कर आग्रह करती है तो आपको मिर्ची क्यों लगती है?
दरअसल, आप सत्ता से डरे हुए एक कायर इंसान/पत्रकार हैं। आपको इंसान होने की पहली शर्त नहीं मालूम कि प्रतिरोध कभी मरता नहीं। आपको पत्रकार होने की पहली शर्त भी नहीं मालूम की सत्ता से सवाल ही असली पत्रकारिता है, बाकी सब पीआरगिरी है।
तब भी, आप जैसे डरे इंसान और आप जैसे कायर पत्रकार को ये याद रखना चाहिए और दिन में दो बार मंत्र की तरह रटना चाहिए कि...लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है....।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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