क्या यह भाजपा के विकल्प की तैयारी है
दिल्ली के चुनाव परिणाम को हम सिर्फ डेढ़ करोड़ मतदाताओं वाले एक छोटे-से राज्य के चुनाव-परिणाम मान बैठेंगे तो हम गलती करेंगे। दिल्ली, दिल्ली है। भारत का हृदय है, वह छोटा-सा प्रदेश भर नहीं है। दिल्ली में जो भी होता है, वह कई गुना बड़ा होकर सारे देश को दिखाई पड़ता है। इसीलिए दिल्ली का चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने अपने अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, मंत्रियों, मुख्यिमंत्रियों और सैकड़ों सांसदों और विधायकों को मैदान में डटा दिया था। फिर भी आप पार्टी प्रचंड बहुमत से लौट गई, भाजपा की पांच सीटें बढ़ीं लेकिन कांग्रेस अपने पुराने शून्य पर अटकी रही।
यह स्थिति कई प्रश्नों को जन्म देती है। इसका पहला प्रश्न तो यह है कि क्या देश में भाजपा का विकल्प खड़ा हो सकता है ? पिछले छह साल में देश में एक भी दल या नेता ऐसा नहीं उभरा, जो भाजपा को चुनौती दे सके। यह ठीक है कि अब भी देश के 12 राज्यों में विरोधी दलों की सरकारें हैं और पिछले दो सालों में भाजपा ने लगभग आधा दर्जन राज्यों में अपनी सरकारें खोई हैं, इसके बावजूद केंद्र में आज भी भाजपा मजबूत है और राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी आज भी दनदना रहे हैं। मोदी को चुनौती देने की कोशिश ममता बेनर्जी और शरद पवार जैसे नेता कर सकते हैं लेकिन इनके मुकाबले हिंदी क्षेत्र के किसी नेता की अखिल भारतीय स्वीकार्यता अधिक सहज हो सकती है ? यह काम क्या अब अरविंद केजरीवाल कर सकते हैं?
लेकिन दिल्ली के अलावा आप पार्टी और केजरीवाल का अस्तित्व कहां है ? पंजाब में आप पार्टी ने उल्लेखनीय प्रगति की थी लेकिन वह प्रगति पार्टी के आंतरिक विवादों का शिकार हो चुकी है। अगले चार साल में या तो आप पार्टी सारे देश में फैल जाए या प्रमुख प्रांतीय पार्टियों से गठबंधन कर ले तो ही वह भाजपा को चुनौती दे सकती है। ये दोनों संभावनाएं ठोस रुप ले लें, यह आसान नहीं है।
आप पार्टी का अब तक का इतिहास बताता है कि देश के जिन प्रमुख बौद्धिकों, समाजसेवियों और छोटे-मोटे नेताओं ने इस पार्टी के प्रारंभ में प्रमुख भूमिका निभाई थी, उनमें से लगभग सबके सब बाहर हो चुके हैं। यह वैसा ही है, जैसा कि नरेंद्र मोदी के उत्थान के साथ ही भाजपा के सारे वरिष्ठ और वजनदार नेता भाजपा की फुटपाथ पर पहुंच गए हैं। केजरीवाल यदि इस कमी को सुधार सके, अपने पुराने साथियों से संवाद कायम करे और हर प्रांत के अपने से भी वजनदार व्यक्तित्वों को अपने साथ शामिल कर सके तो कोई आश्चर्य नहीं है कि सभी प्रांतों में आप पार्टी अपने पांवों पर खड़ी हो जाए। उसकी वर्तमान प्रचंड विजय अन्य पार्टियों के असंतुष्ट नेताओं के लिए भी शरण-स्थल बन सकती है।
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