जानिए, पंचदिवसीय दीपपर्व श्रृंखला का कालविज्ञान और उत्सव की क्या है वैज्ञानिक प्रासंगिकता?
चतुरमास के संचित कीटाणुओं से मुक्ति और सर्वत्र स्वच्छता लक्ष्मी पूजन का विशेष उपकरण है। श्री पूजन, सर्वत्र दीपमालिका समर्पण, घरों, गौशालाओं, देवालयों, चौराहों, पर्वतों, गलियों और श्मशान तक में तैलपूर्ण दीपक प्रजव्लित करने का विधान है।
तमसो माँ ज्योतिर्गमय का छन्द गुनगुनाते ज्योतिपर्व दीपावली को पंचदीवसीय श्रृंखला के रूप में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुक्ल द्वितीया तक मनाया जाता है। कृषि प्रधान भारत वर्ष में गोरस, अन्न, निर्मल जल की पर्यवसित रूप से प्राप्ति होने से महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना का सर्वश्रेष्ठ समय है।
सानो मन्द्रेशमुर्जं दधाना
चतुरमास के संचित कीटाणुओं से मुक्ति और सर्वत्र स्वच्छता लक्ष्मी पूजन का विशेष उपकरण है। श्री पूजन, सर्वत्र दीपमालिका समर्पण, घरों, गौशालाओं, देवालयों, चौराहों, पर्वतों, गलियों और श्मशान तक में तैलपूर्ण दीपक प्रजव्लित करने का विधान है। सरसों या तिल के तेल की गन्ध से रोगाणुओं से मुक्ति मिलती है, शरीर की रोगनिरोधक क्षमता बढ़ती है, आंखों की ज्योति बढ़ती है, जबकि मोमबत्ती, केरोसिन तेल और पटाखों से आंख, श्वांसस हृदय और स्नायु सबंधी बीमारियों होती है।
धनतेरस से लेकर यमद्वितीया तक दीपदान सर्वत्र खुशियां बिखेरता है।
भारत वर्ष का यह उत्सव सचमुच महालक्ष्मी के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों रूपों का उल्लासमय प्रगटीकरण है। घर, आंगन, गलियां, चौक, चौबारे, सड़कें, मुहल्ले, गांव सर्वत्र कोने-कोने की सफाई और संध्या होते ही दीपदान इन उत्सवों के विशेष तत्व हैं। परिपक्व हो चुके अन्न को खलिहान से घर लाने की तैयारी करने के क्रम में चातुर्मास्य में एकत्र गंदगी, कूड़ा-कर्कट की सफाई की जाती है। वर्षा ऋतु में संचित विषाणु प्रायः वातावरण की गंदगी के संसर्ग में विद्यमान रहते हैं और अनेक मृत्युकारक रोगों को जन्म देते हैं। इसीलिए शास्त्रों ने शरद ऋतु को रोगों की जननी कहा है।
रोगाणाम् शारदी माता
चतुर्दिक सफाई के साथ ही संध्याकाल दीपदान करते रहने से संधिकाल में उत्पन्न रोगाणुओं का नाश तो होता ही है, श्रीसम्पन्नता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसीलिए झाड़ू तक को लक्ष्मी के रूप में सम्मान दिया जाता है, पैर की ठोकर नहीं लगाते हैं। तेल जलने से उत्पन्न तीव्र गंध अधिकांश धूलिगत कीटाणुओं का नाश कर देता है, जिससे अपमृत्यु का भय समाप्त हो जाता है।
कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदस्यां निशामुखे। यमदीपं बहिर्दद्यात् अपमृत्यु विनष्यति।।
घर के दरवाजे पर सूर्यास्त के साथ ही यम के लिए चौमुखा दीपदान, आरोग्य के देवता धन्वंतरी की अर्चना फिर दूसरे दिन यमाय दीपदान और तीसरे दिन सूर्यास्त होते ही घर के अन्दर और बाहर सर्वत्र दीपमालिका के सजायी जाती है। दीपमालिका में जलते तेल के गंध से छुपे रोगाणु भी नष्ट हो जाते हैं। सर्वत्र की सफाई के बाद अनाज घर लाया है। चतुर्थ दिवस पर नया अन्न भगवान को चढ़ाने के बाद ही उपयोग में लाया जाता है और पाचवें दिन आयुष्य और आरोग्य देने वाले भाई दूज के साथ ही पंचदिवसीय पर्व शृंखला का समारोप हो जाता है।
पहले दिन आरोग्य और अखण्डलक्ष्मी की उपासना का दिन धनतेरस
पांच दिनों तक चलने वाले दीप महोत्सव का यह प्रथम दिन है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन समुद्रमंथन के समय अमृतकलश हाथों में लिए भगवान धन्वन्तरी का आविर्भाव हुआ था। इसलिए आरोग्य के रक्षक भगवान धन्वन्तरी की पूजा कर मृत्यु के देवता यम के लिए दक्षिण दिशा में दीपदान आरोग्य और आयुष्य प्रदान करता है। निरभ्र स्वच्छ आकाश के साथ ही कोने कोने में सफाई कर महालक्ष्मी के स्वागतार्थ उनकी उपासना के क्रम में अपनी क्षमतानुसार आज नए बर्तन खरीदे जाते हैं।
बिना किसी वहम और आडम्बर के अपनी क्षमतानुसार सोने, चांदी, कांसे, पीतल, स्टील या अक्षम हों तो मिट्टी के नए दीपक खरीदकर महालक्ष्मी के स्वागतार्थ पूजन में प्रयुक्त करने चाहिए। धनत्रयोदशी को पाश से मुक्ति देनेवाले कुबेर, आरोग्यरक्षक धन्वन्तरी और मृत्यदेव यमराज की पूजा-अर्चना का विशेष महत्व है। वेदों में वरुणदेव पाश-बन्धनों से मुक्ति दिलानेवाले देवता के रूप में वन्द्य हैं। पाशबद्ध मनुष्य पशुतुल्य होता है, परतंत्र होता है। जबतक बन्धनों की निवृति न हो, तबतक न तो आरोग्य साधना की जा सकती है और न ही आयुष्य-ऐश्वर्य की सिद्धि। अतः पाशमुक्ति पहले आवश्यक है। इसीलिए ज्योतिपर्व शृंखला के प्रथम दिन जलपूर्ण कलश पर वरुणदेव के आवाहन और उनकी पूजा का विधान है।
ऊँ अपां पतये वरुणाय नमः।
अस्मिन् कलशे वरुणं साङ्गं सपरिवारं सायुधं सशक्तिकम् आवाहयामि, स्थापयामि पूजयामि मम पूजां गृहाण।
धन्वन्तरये नमः।
मिट्टी पृथ्वी का प्रतीक है। अतः मिट्टी के दीए जलाकर मिट्टी की प्रतिमाओं की पूजा का विशेष महत्व है। आज सूर्यास्त होते ही यमदेव के निमित्त घर के बाहर दक्षिण दिशा में दीपदान करना चाहिए। इससे सपरिवार अपमृत्यु का भय समाप्त हो जाता है।
द्वतीय दिन नरक चतुर्दशी (लोक प्रचलित छोटी दिवाली) और श्रीहनुमज्जयन्ती
विद्या-बुद्धि-चातुर्य के निधान, वेदज्ञों में अग्रगण्य, सर्वशास्त्र-पारंगत, अजेय-असीम पराक्रम के मूर्तरूप, अष्टसिद्धि-नवनिधि के दाता, रामरसायन के एकमात्र ज्ञाता, माता अंजनी तथा माता सीता के लाड़ले, मर्यादा पुरुषोत्तम के अनन्य सखा-भाई-भक्त-सेवक और आर्तजीवमात्र के अनन्य आश्रयस्थल शरणागतवत्सल श्रीहनुमान जी का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, मंगलवार को स्वाति नक्षत्र मेष लग्न में हुआ था।
कार्तिकस्यासिते पक्षे भौमे स्वात्यां चतुर्दशी। मेष लग्ने अंजनी गर्भात् प्रादुर्भूतो शिवः स्वयम्।।
भगवान की शरणागति प्राप्ति के लिए ब्राह्ममुहूर्त में उठकर नित्यक्रिया से निवृत होकर भगवान की प्रतिमा, चित्र, अथवा श्रीरामदरबार को प्रतिष्ठित कर, दिन भर उपवास कर, श्री आञ्जनेय की स्तोत्रों-मंत्रों के पाठ सहित पूजन किया जाता है।
तीसरे दिन दीपावली महोत्सव
कुम्हार के चाक पर बने मिट्टी के दीए ही पूजा के अत्यन्त उपयुक्त होते हैं। साथ ही दीपक में जलते तेल की गन्ध मानवमात्र के लिए अहानिकारक किन्तु कीट-विषाणु-रोधक होने से तैलपूर्ण दीए का ही प्रयोग सर्वथा उचित है। मोमबत्ती का जलता मोम मानव के फेफड़ों के साथ ही पर्यावरण के लिए भी अत्यन्त नुकसानदायक है। इसलिए मोम के प्रयोग से हरसम्भव बचना चाहिए।
लोक त्योहार है दीपावली, इसलिए सामुहिकता दिखती है, लक्ष्मी पर्व है, इसलिए मिट्टी के दीपक, मिट्टी की प्रतिमा, मिट्टी के कलश ही उपयोग में लाए जाते हैं, स्थावरोत्सव है, क्योंकि जिस भूभाग में हैं, उसी भूभाग की मिट्टी से बने सामान प्रयोग में लाए जाते हैं।
चतुर्थ दिन अन्नकूट, प्रसंगिकता का शास्त्रीय वैज्ञानिक विमर्श
लक्ष्मी पूजन के अगले दिन देवमन्दिरों में विविध प्रकार के व्यंजनों का भोग अर्पित कर भगवान का प्रसाद बाँटा जाता है। नवान्न से बने व्यंजन को इष्टदेव को समर्पित करने को अन्नकूट कहते है। कृषि प्रधान भारत में खेत महालक्ष्मी की लीलाभूमि हैं। कार्तिक मास में खेतों से घर को आती अन्नरूप महालक्ष्मी के मुख्य साधन गाय, बैल तथा गाय बैलों के आश्रय स्थल गोवर्धन की पूजा अनादि काल से होती आयी है। पहले आग्रयणेष्टि नामक छोटे यज्ञ में नवीन अन्न की आहुति देकर इन्द्र, अग्नि विश्वेदेवा और द्यावापृथिवी देवताओं का भाग समर्पित किया जाता था।
आग्रहयणं अकृत्वा किमपि नवोन्नम् सस्यं न भक्षणीयम्।।
कालान्तर में क्रमशः परिवर्तित होकर इन्द्रयाग से इष्टदेव को नवान्न के व्यंजनों का भोग लगाकर प्रसाद बाँटने और दान देने के रूप में अन्नकूट मनाया जाने लगा। कृषकों के लिए वरदान तुल्य गोवंश की अर्चना तथा औषधि, चारा, जल आदि देते प्रकृति के अधिष्ठान गोवर्धन की पूजा के रूप में विकसित होता चला गया अन्नकूट। अन्नकूट का अर्थ है अन्न समूह। सामूहिक प्रसाद वितरण, ग्रहण के रूप में सामाजिकता के साथ महापर्व आध्यात्मिक उन्नयन तो देता ही है, साथ ही सर्वांगीण विकास का पर्याय होता चला गया।
पंचदिवसीय महोत्सव शृंखला का समारोप यानि भ्रातृद्वितीया
शरद ऋतु रोगों की जननी है। उसमें भी कार्तिक का अंतिम भाग यमदंष्ट्रा कहा जाता है। यमदंष्ट्रा से पूर्व यमुना स्नान और यम का पूजन रोगों से रक्षा करता है, अकाल मृत्यु का भय समाप्त कर देता है। भारतीय संस्कृति में बहन को दया की मूर्ति कहा गया है। दयाया भगिनी मूर्तिः।। शुभशीर्वाद उसके हाथ से भोजन ग्रहण करने से आरोग्य, आयुष्य और ऐश्वर्य में वृद्धि होती है। इस दिन यमराज ने अपनी बहन यमुना के घर भोजन किया था। इसलिए इस दिन प्रयत्नपूर्वक अपनी बहन के घर भोजन करने, उसे उपहार देकर खुश करने से अक्षय वरदान की प्राप्ति होती है। यश, मान के साथ ही धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि होती है।
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