हार के कारण तथ्यों से मुँह नहीं फेरा जा सकता
मज़बूत व्यक्ति पर ही सबसे ज़्यादा प्रहार होता है। बिहार में महागठबंधन की हार का ठीकरा तेजस्वी प्रसाद यादव पर फोड़ा जा रहा है। चूँकि हम बुरी तरह से हारे है इसलिए झोली फैलाकर हर प्रकार की सलाह और आरोप को अपने आँचल में समेट रहे हैं ताकि उनपर चिंतन उपरांत अमल कर सके। लेकिन हार के चलते हम निम्नलिखित तथ्यों से भी मुँह नहीं फेर सकते।
मज़बूत व्यक्ति पर ही सबसे ज़्यादा प्रहार होता है। बिहार में महागठबंधन की हार का ठीकरा तेजस्वी प्रसाद यादव पर फोड़ा जा रहा है। चूँकि हम बुरी तरह से हारे है इसलिए झोली फैलाकर हर प्रकार की सलाह और आरोप को अपने आँचल में समेट रहे हैं ताकि उनपर चिंतन उपरांत अमल कर सके। लेकिन हार के चलते हम निम्नलिखित तथ्यों से भी मुँह नहीं फेर सकते।
* जो लोग महागठबंधन में ज़्यादा दलों और छोटे दलों को शामिल करने पर टिप्पणी करते है वो भूल जाते है कि बीजेपी, नीतीश कुमार और रामबिलास पासवान 1999 के बाद एक साथ चुनाव लड़ रहे थे। कारगिल युद्ध के बाद हुए 1999 के उस आम चुनाव में एकीकृत बिहार(झारखंड) में तीनों ने बिहार में राजद की सरकार रहते हुए भी 54 में से 41 सीटें जीती थी। तीनों का कुल वोट प्रतिशत लगभग 45-48% के बीच था। इसलिए दूसरे दलों से समझौता किया गया।
* कांग्रेस, RLSP, HAM, VIP के अलावा सीपीआई-माले को भी गठबंधन में शामिल किया गया ताकि समान विचारधारा के वोटों का बिखराव ना हो। ताकि राजद गठबंधन को व्यापक सामाजिक समर्थन मिले।
* अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता एवं सामाजिक न्याय विरोधी सांप्रदायिक बीजेपी को हराने के उद्देश्य के चलते पहली बार राजद बिहार में सबसे कम 19 सीटों पर लड़ी। जिसमें कुछ परंपरागत मज़बूत सीटों को भी छोड़ना पड़ा।
* अगर नेतृत्व गठबंधन का हिस्सा नहीं बनता तो आरोप लगाया जाता। अब लोग गठबंधन को ही हार का कारण बता रहे है। गठबंधन नहीं बनता तो कहते MY से आगे का गठबंधन नहीं हुआ। हुआ तो ज्ञानी लोग कह रहे है सहयोगी दलों का वोट ट्रांसफ़र नहीं हुआ। फ़ेसबुक पर ज्ञान बाँट रहे लोग अपने बूथ और गाँव का रिज़ल्ट बतायें। वहाँ उन्हें वोट करने से कौन रोक रहा था?
* क्षेत्रीय दलों के कार्यकर्ता दूसरों की लिखी बातों और अजेंडो पर तुरंत यक़ीन कर लेते है। वो यह नहीं सोचते की बीजेपी ने अपने 102 सांसदो के टिकट काटे। लोकसभा अध्यक्ष से लेकर आडवाणी और जोशी तक के टिकट काटे। क्या उन नेताओं ने या उनके समर्थकों ने किसी ने सार्वजनिक रूप से कोई बयान दिया। क्या किसी ने फ़ेसबुक पर लिखा? लेकिन राजद में गठबंधन की बाध्यताओं के चलते 1991 से लगातार 8 लोकसभा चुनाव लड़ रहे और लगातार 3-4 चुनाव हार रहे व्यक्ति को टिकट नहीं मिला तो ज्ञान बाँट रहे है। संगठन का दोष दे रहे है।
* विगत 2 वर्षों में समूचे उतर भारत में अगर कोई विपक्षी नेता जनसरोकारों को लेकर पटना से दिल्ली तक सड़क से सदन तक लड़ा है तो उसका नाम तेजस्वी यादव है। चाहे SC-ST अट्रॉसिटीज़ ऐक्ट का मसला हो, 13 point रोस्टर का मामला हो, सृजन घोटाले का मामला हो, मुज़फ़्फ़रपुर बालिका गृह बलात्कार कांड का मामला हो जिसे लेकर जंतर-मंतर तक मार्च किया। पूरे बिहार में दो राउंड यात्रा की। पहली जनादेश अपमान यात्रा और दूसरी संविधान बचाओ न्याय यात्रा।
* जुलाई 2017 से तेजस्वी यादव ने सड़क मार्ग से हज़ारों किलोमीटर की यात्रा की। दिसंबर और जनवरी माह प्रत्येक ज़िला के संगठन के साथ बैठक की। हाँ यह सही है सारा संगठन पुराना है। अब उसमें क्या तब्दीली करनी है यह नेतृत्व का फ़ैसला होगा।
* तेजस्वी यादव के नेतृत्व में ही राजद ने सभी उपचुनाव भी जीते। एनडीए के सहयोगी दलों को तोड़ा भी। देश में सबसे पहले पटना के गांधी मैदान में अधिकांश विपक्षी दलों के साथ “भाजपा भगाओ-देश बचाओ” महारैली का आयोजन किया।
* आरक्षण और संविधान के मसले पर तार्किकता के साथ अपने स्पष्ट विचार जनता के समक्ष रखे।
* सभी प्रमुख मुद्दों अपराध, बेरोजगारी, बदहाल शिक्षा व्यवस्था, कृषि इत्यादि पर मुखर रहे। पूरे आम चुनाव में लगातार तेजस्वी यही कहते रहे कि “मोदी नहीं मुद्दे पर बात करिए”। शायद जनता को मुद्दे नहीं मोदी पसंद आए।
* सभी नेताओं के भाषणों के Pointers निकालिए। वो लगातार मोदी सरकार की पाँच वर्ष की विफलताएँ गिनाते रहे। चुनाव भर एक बड़ी ब्लैंक पुस्तक के साथ जनता को उनकी वादाखिलाफ़ी याद दिलाते रहे।
* लगातार विचारधारा पर ज़ोर देते रहे है। आक्रामकता का भी तड़का लगाते रहे हैं।
* पूरे चुनाव भर बिहार में लगातार 55 दिन सबसे ज़्यादा 232 चुनावी सभाओं को संबोधित किया।
* 29 वर्षीय अकेले तेजस्वी के सामने नीतीश कुमार, सुशील मोदी, रामबिलास पासवान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे धुरंधर और अनुभवी नेता थे जो लालू जी की अनुउपस्थिति में तमाम संसाधनों के साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से तेजस्वी को टार्गेट कर रहे थे। उनकी सेकंड लाइन लीडरशीप आक्रामक और अमर्यादित रूप से उन्हें भला-बुरा कह रही थी।
* चुनाव बीच उन्हें लालू जी से मिलने पर रोक लगा दी गयी। किसी प्रकार से संपर्क नहीं हो पा रहा था। उनकी अनुउपस्थिति में पहली बार अकेले सब प्रबंधन संभालना पड़ रहा था। जो अपने आप में उनके लिए पहली बार एक नया अनुभव था।
* हारने पर अनेकों कारण गिनाए जाते है जिसमें एक है सवर्ण आरक्षण का विरोध। यूपी में तो किसी ने उसका विरोध नहीं किया। कांग्रेस ने उसका विरोध नहीं किया फिर ये पार्टी कैसे हार गयी? तमिलनाडु में डीएमके इस आरक्षण के विरोध कोर्ट तक गयी लेकिन उसे रिकॉर्डतोड़ जीत मिली। अगर इसका विरोध नहीं भी करते और मान लीजिये सभी सवर्ण राजद को वोट कर देते तो भी हार का 10 फ़ीसदी का अंतर रहता।
* एक पल माना लिया बिहार में तेजस्वी अनुभवहीन थे लेकिन क्या यूपी में अखिलेश-मायावती क्या अनुभवी नहीं थे। झारखंड में महागठबंधन एक साल पहले बन गया था और उसका नेतृत्व तो कई पूर्व मुख्यमंत्रियों के हाथ में था। वहाँ क्या हुआ? अभी हाल ही में तीन राज्यों में कांग्रेस जीती थी, वहाँ उसके मुख्यमंत्री थे। वो अपने परिवार को भी नहीं जीता पाए। बंगाल में ममता दी मज़बूत है लेकिन वहाँ क्या हुआ? नवीन पटनायक के राज्य में बीजेपी ने सीटें बढ़ाई। देशभर में 15 पूर्व मुख्यमंत्री चुनाव हार गए। क्या उनको अनुभव की कमी थी।
* आप देश में कितने ऐसे युवा नेताओं को जानते है जो मात्र 29 वर्ष की उम्र में इतने परिपक्व और लोकप्रिय थे। जिसे एक ही कार्यकाल में उपमुख्यमंत्री से लेकर नेता प्रतिपक्ष का पद संभालना पड़ा। जिसे CBI, ED और IT के चक्कर लगाने पड़े। कोर्ट में जाना पड़ा। मीडिया ट्रायल का सामना करना पड़ा। तेजस्वी ने बख़ूबी सभी का सामना किया। वह अकेले पूरे तंत्र के ख़िलाफ़ लड़ा।
दरअसल यह चुनाव मुद्दों पर लड़ा ही नहीं गया। एक अलग प्रकार का माहौल बनाया गया। इतनी प्रचंड जीत के बाद भी जनता और सरकार दोनों में एक विशेष प्रकार की ख़ामोशी, अविश्वास और सन्नाटा है। अभी कुछ वक़्त तक जनता और सरकार दोनों ही एक दूसरे से संवाद करेंगे और समस्याओं से निपटेंगे। हम आशा करते है सरकार जनता की अपेक्षाओं को बहुमत के साथ पूरा करेगी।
(ये 'आई सपोर्ट तेजस्वी' फेसबुक से ली गयी है)
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